*कलीमुल हफ़ीज़*
Kalimulhafiz |
*लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो हुक्मरां इन तमाम बातों के पाबंद होते हैं। क्यूंकि वे वोट ही इस वादे पर लेते हैं कि जनता की भलाई के लिये काम करेंगे। वे संविधान पर हाथ रख कर क़सम उठाते हैं कि मुल्क के शहरों में रंग, नस्ल, क्षेत्र और धर्म के नाम पर कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। लेकिन भारत की मौजूदा केन्द्र सरकार से ले कर बहुत-सी राज्य सरकारों तक जिस तरह संविधान और नैतिकता की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं उससे लगता है कि मुल्क लुटेरों और डाकुओं के हाथ में चला गया है। जो नहीं चाहते कि मुल्क में अमन-व-सलामती हो और देश के नागरिक चैन के साथ दो रोटी कमा और खा सकें।*
*हर राज्य में सरकारी अन्याय बिलकुल खुला हुआ है। पूरे देश को फासीवाद की आग में झौंका जा रहा है। पिछले आठ साल में जितने भी इशूज़ उठाए गए उन में से किसी एक का ताल्लुक़ भी जनता की भलाई और मुल्क की तरक़्क़ी से नहीं था। बल्कि वे सभी इशूज़ देशवासियों को बाँटने वाले, उनके बीच नफ़रत की दीवारें खड़ी करने वाले थे। कुछ ऐसे इशूज़ भी थे जिनका ताल्लुक़ हालाँकि मुसलमानों से नहीं था लेकिन इनसे भी किसी का भला नहीं हुआ। बल्कि हुकूमत ने अपने कुछ दोस्तों को फ़ायदा पहुंचाने की ख़ातिर जनता का गाला घोंटा।*
*मिसाल के तौर पर G.S.T का क़ानून लाया गया। अव्वल तो यह क़ानून इतना पेचीदा बनाया गया कि दो साल इसको समझने में लग गए, फिर इसमें आवामी ज़रूरत की बुनयादी चीज़ों को भी शामिल करके जेबों पर डाका डाला गया। आज तक G.S.T एक रहस्य है। जिसको देश की वित्त मन्त्री भी शायद समझ नहीं सकी हैं। कुछ ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें इसी G.S.T की वजह से बढ़ गईं, जिसको यह कह कर लागू किया गया था कि एक देश एक टैक्स के सिस्टम से जनता को फ़ायदा होगा। इसी तरह नोटबंदी का फ़ैसला लिया गया। काला धन निकालने की बात कही गई, मगर इसका अंजाम क्या हुआ। सैंकड़ों जानें सिर्फ़ बैंक में क़तार लगाने की वजह से चली गईं। लाखों लोगों के रोज़गार ख़त्म हो गए। सरकार ने आज तक नहीं बताया कि नोटबंदी से जनता का क्या फ़ायदा हुआ।*
*कृषि-बिल लाए गये, जिसका एक साल तक विरोध जारी रहा जिसकी वजह से अरबों रुपयों का जनता को नुक़साम हुआ, आख़िरकार उनको वापस लिया गया। कश्मीर से धारा 370 हटा कर उसे तीन हिस्सों में बाँट कर आख़िर क्या मिला? भारत की आम जनता को कितना फ़ायदा हुआ? कितने कश्मीरियों की ज़िन्दगी कामयाब हो गईं? सीमा पार से घुसपैठ में कितनी कमी आई? क्या अपने पड़ौसी देशों से रिश्ते अच्छे हो गए? इन सब सवालों का जवाब 'नहीं' में है। बजाय इसके कश्मीरियों को हज़ारों करोड़ का नुक्सान हुआ। पड़ोसी देश ने तो ख़ैर हम से अच्छे रिश्ते क़ायम न करने की क़सम खा रखी है लेकिन मुस्लिम दुनिया में भी भारत की तस्वीर ख़राब हुई।*
*रहे वो इशूज़ जिनका ताल्लुक़ किसी न किसी तरह इस्लाम और मुसलमानों से है उनसे जनता की भलाई का कोई ताल्लुक़ नहीं था और न है। अलबत्ता इन इशूज़ से देश को बहुत बड़े नुक़सान हुए। देश में नफ़रत पैदा हुई, इंसानी जानें गईं, घर जलाए गए, कारोबार तबाह हुए, देश की अर्थव्यवस्था को भी नुक़सान पहुँचा, समाजी ताने-बाने भी बिखर गए और विदेशों में भी हमारी तस्वीर ख़राब हुई। इनकी वजह से बेरोज़गारी बढ़ी, ग़ुरबत में बढ़ोतरी हुई।*
*मिसाल के तौर पर CAA बिल लाया गया। पूरे देश में धरने और प्रदर्शन हुए। सड़कें जाम हो गईं, कारोबार मुतास्सिर हुए। एक-दो नहीं लाखों करोड़ों रुपये का नुक़सान हुआ। फ़ायदा क्या हुआ? इस बिल से किसी को फ़ायदा पहुँचाने में भी सरकार गम्भीर नहीं है, वरना 800 हिन्दू पाकिस्तानी ख़ानदानों को नागरिकता न मिलने की वजह से भारत से वापस न जाना पड़ता। जैसा कि 10 मई के अख़बारों में ख़बर है कि ये ख़ानदान दो साल से नागरिकता के लिये अर्ज़ी दिये हुए थे जो मंज़ूर नहीं हुई।*
*जनता के प्रदर्शन की वजह से इस बिल को भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। बाबरी मस्जिद का क़िस्सा तो ख़ैर बहुत पुराना है। इसका फ़ैसला अपने हक़ में करवाकर कम से कम हिन्दू भाइयों को राम के नाम पर एक विशाल मन्दिर मिल गया। लेकिन इस फ़ैसले ने न्यायिक व्यवस्था पर सवालात खड़े कर दिये। तलाक़-बिल से किसको फ़ायदा पहुँचा यह देखने की भी ज़रूरत है? हिजाब का इशू उठाकर कितने लोगों को रोज़गार मिला? अज़ान के मसले से कितने बेरोज़गारों को रोज़गार मिल गया? नफ़रत भरी तक़रीरें करके कितने बीमार अच्छे हो गए? क्या सरकार इन सवालों के जवाब देगी।*
*क्या देश की वास्तविक समस्याओं से आँखें बंद करके देश का विकास होगा? क्या मुसलमानों से नफ़रत करके अर्थवयवस्था में बढ़ोतरी होगी? क्या बहु-बेटियों की इज़्ज़त उछाल कर हमें दुनिया में गौरव और सम्मान मिलेगा? सिर्फ़ अपनी सरकार को मज़बूत करने के लिए लोगों को लड़वाया जाता है। रोज़ एक नई घटना लाई जाती है। इस समय दिल्ली में अतिक्रमण के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। देश महंगाई की आग में जल रहा है। डीज़ल, पेट्रोल और गैस के बढ़ते दामों ने कमर तोड़ कर रख दी है। रुपये की क़ीमत पिछले पिछत्तर साल में सबसे नीचे चली गई है। बिज़नेस करने वाले लोग देश छोड़ कर जा रहे हैं।*
*लेकिन सरकार में बैठे लोग ज्ञान-व्यापी मस्जिद का सर्वे करा रहे हैं। मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद पर अदालत में बहस हो रही है। ताज महल के बाइस कमरों की जुस्तजू की जा रही है। इस हाल में जबकि संविधान में धर्म-स्थल एक्ट-91 के चलते किसी भी धार्मिक स्थल पर कोई बहस नहीं की जा सकती, फिर भी अदालतें सोच-विचार कर रही हैं। यानी अब संविधान का होना भी कोई मतलब नहीं रखता। रेत में गर्दन छिपाने से बगले की मौत नहीं टाली जा सकती। अगर वास्तविक समस्याओं से इसी तरह मूँ फेरा जाता रहेगा तो देश भयानक तबाही का शिकार होगा।*
*पंजाब में ख़लिस्तान के हित में बोलने वालों और शिव सेना के लोगों के बीच में झड़प और हिमाचल प्रदेश की असेंबली पर ख़ालिस्तानी झंडे नए ख़तरों के आने का इशारा हैं। इसका मतलब है कि देश में अलगाववादी आंदोलन पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है।*
*इन संगीन घटनाओं में विपक्ष की आवाज़ कहीं सुनाई नहीं देती। मैंने अपने बचपन में देखा था कि ज़रा सी महंगाई होने पर विपक्ष आसमान सर पर उठा लेता था। किराया महँगा होता तो बसें जला दी जातीं। रेल रोको आंदोलन होते थे। सरकारी सम्पत्ति को निशाना बनाया जाता था। मैं ये नहीं कहता कि किसी क़िस्म का नुक़सान किया जाए लेकिन सड़कों पर विरोध करना और धरने देना तो लोकतंत्र में क़ानूनी हक़ है। अगर सिर्फ़ मुसलमान या मुसलमानों का कोई गरोह महंगाई और बे-रोज़गारी पर विरोध करेगा तो साम्प्रदायिक तत्व इसे भी हिन्दू-मुस्लिम नज़रिये से देखेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि देश के सभी विपक्षी गरोह एक जुट हो कर लोगों की आज़ादी और देश की अखण्डता से जुड़ी समस्याओं पर हड़ताल का ऐलान करें। मुसलमान उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलनेवाले नज़र आएँगे।*
*मुझे हैरत होती है कि चालीस साल पहले रुपये-दो-रुपये की बढ़ोतरी पर भी शोर मच जाता था और आज 100 रुपये बढ़ने पर भी ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लिया जाता है। अगर शासक जनता की भलाई भूल गए हैं तो क्या विपक्ष भी जनता को असहाय छोड़ देंगे?*
*विपक्ष के कुछ दलों की चुप्पी ख़ुद उनके किरदार को शक में डाल रही है। ऐसा महसूस होता है कि सरकार और विपक्ष दोनों को ही किसी एक ही ऑफ़िस से रहनुमाई दी जा रही है। देश का विपक्षी दल अपनी हैसियत को पहचाने और अपना वास्तविक रोल अदा करे। वह सरकार की साम्प्रदायिक राजनीति का शिकार न हो। उन्हें लोगों की तकलीफ़ का अहसास होना चाहिए। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसकी रीढ़ की हड्डी की तरह है। देश अगर एक बार आर्थिक रूप से दीवालिये का शिकार हो गया तो देश के लोगों की ‘लंका’ लग जाएगी।*
*कलीमुल हफ़ीज़*, नई दिल्ली