*‘ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठ खड़े होना हर शहरी की ज़िम्मेदारी है’* *(सब्र का मतलब यह नहीं है कि चुप-चाप ज़ुल्म सहते जाओ, ज़ुल्म हर समाज में नापसन्दीदा है)*
*कलीमुल हफ़ीज़* Kalimulhafeez *कोई भी इंसान ज़ुल्म से मुहब्बत नहीं करता, इसके बावजूद इतिहास के हर दौर में ज़ुल्म होता रहा है। इंसान की फ़ितरत है कि जब उसे ताक़त हासिल हो जाती है तो अपने ही भाइयों पर ज़ुल्म करने लगता है, जब तक वो ख़ुदा से न डरता हो। अल्लाह का डर ही ताक़तवर को ज़ुल्म से दूर रखता है। इसीलिये जब-जब ऐसे हुक्मरां हुए जो ख़ुदा का डर रखने वाले थे तब-तब ज़ुल्म और ज़ालिम को अपने पाँव समेटने पड़े। ज़ुल्म करना तो ज़ुल्म है ही, ज़ुल्म सहना भी दरअसल अपने-आप में ज़ुल्म है। ज़ुल्म सहने से ज़ालिम के हौसले बुलंद होते हैं वह और भी ज़्यादा ज़ुल्म करता है।* *ज़ुल्म की उम्र हालाँकि कम होती है। लेकिन इसके नुक़सानात देर तक बर्दाश्त करने पड़ते हैं। हर दौर में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने वाले भी पैदा होते रहे। यह कुदरत का निज़ाम है। अल्लाह एक मुद्दत तक ही ज़ालिम को मौहलत देता है। जब ज़ालिम हद से बढ़ता है तो उसके मुक़ाबले पर खड़े होने वालों की हिमायत करके ज़ुल्म का ख़ात्मा कर देता है। ख़ुद हमारे देश में अंग्रेज़ों के अत्त्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों की उसने मदद की। जिसकी बदौलत उस ज़ुल्म से नजात मिली और आज़ादी की सुबह नसीब हुई।* *