‘तू हाए गुल पुकार मैं चिल्लाऊँ हाए दिल’*
*कलीमुल हफ़ीज़*
*डॉक्टर की एक ग़लती इंसान को मौत के मुँह में धखेल देती है, जज की एक ग़लती फाँसी के तख़्ते पर पहुँचा देती है लेकिन वोटरों की एक ग़लती कई नस्लों तक तकलीफ़ देती है। इत्तिफ़ाक़ से भारत में आज़ादी के बाद से यही कुछ हो रहा था और इस बार भी वही हुआ। मुसलमानों ने अपने पिछले तज्रिबों से कुछ नहीं सीखा। वे एक बार फिर उन तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की इज़्ज़त बचाने के लिए जान पर खेल गए, जो पार्टियां लगातार मुसलामानों की इज़्ज़त व आबरू से खेलती रही हैं।*
*इलेक्शन के रिज़ल्ट उठा कर देख लीजिये। पहले मरहले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन इलाक़ों में चुनाव हुए, जहाँ जाट वोट का असर था वहाँ 58 सीटों में से केवल 12 सीटें सपा-गठबंधन के हिस्से में आईं। इसी तरह यादव बेल्ट में जब इलेक्शन हुआ तो 35 में से 23 सीटें बीजेपी ने जीत लीं। आख़िर जाट और यादव ने अपनी पार्टियों को वोट क्यों नहीं दिया। केवल मुस्लिम इलाक़ों में गठबंधन को ठीक-ठाक कामयाबी हासिल हुई। इसलिये कि 83% मुस्लिम वोट इसे हासिल हुआ। बसपा, जिसने अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ा है, उसे 12% वोट हासिल हुए जबकि ख़ुद का अपना 40% जाटव वोट उससे दूर चला गया।*
*आख़िर हाथी का निशान देखने वाली आखें कमल का फूल कैसे देखने लगीं। पूरे चुनावी अभियान में बहन जी कहीं भी इलेक्शन लड़ते दिखाई नहीं दीं, जिस तरह नतीजों के बाद उनपर से और सतीश मिश्रा पर से बहुत-से मुक़द्दमे हटाए गए और सियासी गलियारों में जिस तरह इनके लिए राष्ट्रपति बनने की अफ़वाहें गर्दिश कर रही हैं वो इस बात का सबूत हैं कि बहनजी ने बीजेपी से इलेक्शन से पहले ही एग्रीमेंट कर लिया था।*
*नतीजों के बाद मजलिसे इत्तिहादुल-मुस्लेमीन पर वही इल्ज़ाम लगाया गया जो बिहार में लगाया गया था कि इसकी वजह से बीजेपी की सरकार बनी है। इल्ज़ाम लगानेवालों में बड़े-बड़े बुद्धिजीवी शामिल हैं, बल्कि एक मशहूर जमाअते इस्लामी के स्कॉलर ने भी यही इल्ज़ाम लगाया है। ये इल्ज़ाम सरासर बददयानती पर आधारित है, मजलिस ने कुल 94 सीटों पर चुनाव में हिस्सा लिया। किसी जगह कामयाब नहीं हुई, उसको पाँच लाख से भी कम वोट हासिल हुआ। जबकि हार-जीत का जायज़ा लेने से मालूम होता है कि केवल सात सीटें ऐसी हैं जहाँ मजलिस को इतना वोट मिला कि जितने वोटों से गठबन्धन का उम्मीदवार हारा है। इसमें बिजनौर, मुरादाबाद शहर, नकुड़, कुर्सी, सुल्तानपुर, शाहगंज और औरई की सीटें शामिल हैं। सवाल ये है कि बाक़ी की 271 सीटों पर किसकी वजह से गठबन्धन को हार हुई? ये आँकड़े भी सामने आने चाहिये।*
*सौ से ज़यादा सीटें वो हैं जहाँ कांग्रेस ने इतना वोट हासिल किया कि अगर वो गठबंधन को मिल जाता तो गठबंधन की जीत होती। कई दर्जन सीटों पर यही हाल बसपा का रहा। कई जगहों पर ये किरदार आम आदमी पार्टी ने अदा किया। लेकिन कोई इन पार्टियों को वोट-कटवा नहीं कह रहा है, आख़िर जाने-माने धर्मनिरपेक्ष दलों से कोई नहीं पूछता कि इनके अपने वोटरों ने ग़द्दारी क्यों की? केवल एक मजलिस है जिस पर अपने भी और दूसरे भी करम फ़रमा रहे हैं।*