आज का मज़मून अहले नज़र के हवाले, 23.2.22
मुसलमानों की जहालत और ग़रीबी की सबसे बड़ी वजह दीन का महदूद तसव्वुर है - कलीमुल हफ़ीज़
*ये मज़मून एक हादसे कि वजह से लिखना हुआ। हुआ ये कि दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती का रहने वाला एक मुस्लिम लड़का जिसकी उम्र 18 साल रही होगी, तिहाड़ जेल में पुलिस की मार न झेल सका और मर गया। इस हादसे पर उस बस्ती में हंगामा हुआ। सड़क पर जनाज़ा रख कर विरोध-प्रदर्शन किया गया। हज़ारों लोगों ने सड़क जाम कर दी। पुलिस के यक़ीन दिलाने के बाद मैय्यत की तदफ़ीन की गई।
उस बस्ती के पास में बड़ी-बड़ी इमारतें हैं, उनमें कुछ इमारतें अमीर मुसलमानों की हैं। ये बस्ती दिल्ली के बीचों-बीच है। अक्सर झुग्गी बस्तियाँ किसी गंदे नाले या शहर के किनारे, कूड़े के ढेर के आस-पास हैं, मगर ये बस्ती रोड के किनारे है। इस बस्ती में ज़्यादातर मुसलमान ही रहते हैं, जिनका ताल्लुक़ यूपी, बंगाल और बिहार से है।*
*इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि दिल्ली के लोग दिन भर मसरूफ़ रहते हैं। इसमें भी कोई हैरत की बात नहीं कि दिल्ली में एक ही फ़्लैट में रहने वाले एक-दूसरे को नहीं जानते, बल्कि जानना भी नहीं चाहिए। ‘जानना भी नहीं चाहिए’ इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे एक दोस्त ने बताया कि वो जिस बिल्डिंग में रहते हैं उसमें चार फ़्लोर हैं, और हर फ़्लोर पर दो दो फ़्लेट हैं। मैं जब अपने फ़्लेट से आता जाता तो बाक़ी लोगों को जो इस बिल्डिंग में रहते हैं उनको मौक़ा देख कर सलाम कर लेता। एक साहब से तक़रीबन रोज़ ही सलाम-दुआ होती है। एक दिन वो कहने लगे कि आप सलाम क्यों करते हैं? इस सवाल पर मैंने कहा, जनाब सलाम करना सवाब है, इससे जान-पहचान पढ़ती है, हम एक ही बिल्डिंग में रहते हैं, हमें एक-दूसरे से परिचित होना चाहिये, उन्होंने बुरा सा मुँह बना कर कहा नहीं, मुझे इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। आप मुझे सलाम न किया करें।*
*आप इन दोनों वाक़िआत को देखिये और फिर इस्लाम की तालीमात, रसूलुल्लाह (सल्ल०) के नमूने, ख़ैरे-उम्मत होने के तक़ाज़े, आम इंसानी अख़लाक़ की रौशनी में अपना जायज़ा लीजिये। हमारे यहाँ कितने ही लोग तहज्जुद पढ़ते हैं और नवाफ़िल के पाबंद हैं, अल्लाह ने जिनको मुख़्तलिफ़ सलाहियतों और नेमतों से नवाज़ा है, किसी को ख़ूब माल दिया है, किसी को फ़ुर्सत के पल ख़ूब बख़्शे हैं। लेकिन हम इन नेमतों का सही से इस्तेमाल नहीं करते। इसलिए किसी भी सूरत हमारी हालत नहीं बदलती।*
*हमारे यहाँ दीन का महदूद तसव्वुर इतना आम हो गया है कि भूखों को खाना खिलाना, झुग्गी में रहने वालों की तालीम व तरबियत का ख़याल करना, अपने आस-पास के लोगों की समस्याओं को जानना और समझना दीन का काम ही नहीं समझा जाता। हमारी साउंड-प्रूफ़ गाड़ियों और महलों तक ग़रीबों की आवाज़ नहीं पहुँचती। हम इतने बे-हिस हो गए हैं कि अपने जैसे इन्सानों ही को नहीं बल्कि अपने मुसलमान भाइयों तक को ख़ातिर में नहीं लाते। दीन के महदूद तसव्वुर की बदौलत क़ुरआन का इस्तेमाल हम सिर्फ़ मुर्दों को बख़्शवाने तक महदूद कर देते हैं। सीरत का मतलब महफ़िल सजाना है, सुन्नत के नाम पर चंद नवाफ़िल हैं।*
प्रस्तुति एस ए बेताब