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मजदूर बेबस और लाचार क्यों समझा जाता है

मजदूरों की गांव वापसी की होड़ और सड़क पर मचा मौत का तांडव संवेदनाओं को इन दिनों झकझोर कर रख गया है। सैकड़ों हजारों मील की यात्रा बूढ़े से लेकर बच्चे एवं महिलाओं का जो हुजूम सड़कों पर इन दिनों पैदल जाने का दिख रहा है वह लोकतंत्र की मयार्दा में निहित सरकारों के लिए न केवल चुनौती है बल्कि उनके काम-काज पर भी सवालिया निशान लगाता है। जिस प्रकार सड़कों पर हादसों की तादाद बढ़ी है और मौत के आंकड़े गगनचुम्बी हो रहे हैं वो किसी भी सभ्य समाज को हिला सकते हैं।

हादसे यह इशारा करते हैं कि कोरोना वायरस से भी बड़ी समस्या इन दिनों मजदूरों की घर वापसी है। लॉकडाउन के कारण करोड़ों की तादाद में लोग बेरोजगार हो गये। 50 दिनों के इस लॉकडाउन में भूख और प्यास में भी इजाफा हो गया। सरकारी संस्था हो या गैर सरकारी सभी को इस वायरस ने हाशिये पर खड़ा कर दिया है। कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं आज भी सेवा में अपनी तत्परता दिखा रही हैं मगर वो भी असीमित संसाधन से युक्त नहीं है। सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन से पहले सरकार इस बात का अंदाजा नहीं लगा पायी कि जो दिहाड़ी मजदूर या कल-कारखानों में छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, रिक्षा, ऑटो, टैक्सी चलाते हैं, घरों में झाड़ू-पोछा का काम करते हैं, दफ्तरों में आउटसोर्सिंग के तौर पर सेवाएं देते हैं इतना ही नहीं मूंगफली बेचने से लेकर चप्पल-जूते बनाने वाले मोची सहित करोड़ों कामगार का जब काम तमाम होगा तो उनका रूख क्या होगा। 25 मार्च से लागू लॉकडाउन के तीसरे दिन ही दिल्ली में घर जाने का जो लाखों का जो जमावड़ा दिखा वह इस बात को तस्तीक करता है।

कोरोना का मीटर रोजाना की गति से बढ़ने लगा लेकिन समस्या कहीं और भी बढ़ रही थी वह थी बेरोजगार हो चुके कामगारों के लिए ठिकाना और भूख जिसने इन्हें जीवन से दर-बदर कर दिया। सिलसिला पहले बहुत मामूली था पर इन दिनों बाढ़ ले चुका है। पूरे देश से चैतरफा घर वापसी के कदम-ताल देखे जा सकते हैं और पूरे देश में मौत के हादसे भी आंकड़ाबद्ध हो रहे हैं और अब तो दिन भर में कई हादसे देखे जा सकते हैं। 16 मई के एक आंकड़े का उदाहरण दें तो उत्तर प्रदेश के औरेय्या में 24 मजदूर काल के ग्रास बन गये। ये हरियाणा और राजस्थान से अपने गांव जा रहे थे। जिसमें ज्यादातर मजदूर पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और बिहार के थे। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये कोरोना का डर लोगों में बढ़ता गया और लोग पूरी तरह घरों में कैद हो गये पर यह बात मानो मजदूरों पर लागू ही नहीं होती।

जाहिर है भूख और प्यास क्या न करवा दे। अपने ही बच्चों और परिवार के सदस्यों की भूख से बिलबिलाहट आखिर कौन देख सकता है। ऐसे में जब उम्मीदों में शहर खरा नहीं उतरता है तो गांव की याद आना लाजमी है और मजदूरों ने यही किया। भले ही उन्हें हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल करनी पड़ रही है पर उनके मन में गांव जाने का सुकून किसी-न-किसी कोने में तो है। लोकतंत्र में कहा जाता है कि सरकारें जनता के दर्द को अपना बना लेती हैं। लेकिन यहां स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि सरकारें इनके दर्द से मानो कट गयी हों। वैसे अनुभव भी यही कहते हैं कि दु:ख-दर्द में गांव और जब कहीं से कुछ न हो तो भी गांव ही शरण देता है। इतनी छोटी सी बात समझने में शासन-प्रशासन ने कैसे त्रुटि कर दी। रेल मंत्रालय का आंकड़ा है कि 10 लाख लोगों को उनके घर वापस पहुंचाने का काम किया है। हो सकता है कि यह आंकड़ा अब बढ़ गया हो पर यह नाकाफी है। उत्तर प्रदेश सहित कुछ राज्य सरकारों ने मजदूरों और विद्यार्थियों समेत कुछ फसे लोगों को बस द्वारा वापसी करायी है यह एक अच्छी पहल थी पर इसे समय से पहले कर लिया जाता तो निर्णय और चोखा कहलाता।

पैदल अपने-अपने गांव पहुंचने का क्या आंकड़ा है इसकी जानकारी सरकार को है या नहीं कहना मुश्किल है। एक नकारात्मक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मजदूरों की लगातार वापसी पूरे भारत में कोरोना मीटर को गति दे दिया है। गौरतलब है कि इन दिनों अर्थव्यवस्था ठप्प है। 12 मई से कुछ रेलें चलाई गयी हैं धीरे-धीरे सम्भावनाएं और क्षेत्रों में खोजी जा रही हैं। लॉकडाउन का चरण भले ही ढ़िलाई के साथ रहे पर कोरोना से मुक्ति कब मिलेगी किसी को नहीं पता। समाधान कितना और कहां कह पाना कठिन है जबकि अभी तो समस्या ही उफान पर है। हालांकि देने के लिए बड़ा दिल दिखा रही है। देश में खाद्य की कोई समस्या नहीं है ऐसा खाद्य मंत्री की तरफ से बयान है। 5 किलो राशन दिया गया। अब यह कितनी भरपाई कर पाएगा यह भी पड़ताल का विषय है। सवाल है कि जब खाद्य वितरण में सुचिता है तो मजदूरों ने घर वापसी का मन क्यों बनाया। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्याह कागज पर गुलाबी अक्षर लिखकर कहानी कुछ और बतायी जा रही है। राम विलास पासवान ने यह बात स्वीकार किया है कि कितने मजदूर गरीब है यह पता लगाना मुश्किल है ऐसे में 5 किलो राशन को मुफ्त देने की घोषणा में देरी स्वाभाविक है।

प्रदेश की सरकारों ने सुशासन का जिम्मा तो खूब उठाया मगर मजदूरों के काम यह भी पूरी तरह नहीं आयी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुशासन बाबू के रूप में माना जाता है पर वे अपने ही प्रदेश के निवासियों को वापस लेने से बहुत दिनों तक कतराते रहे। उन्हें डर था कि बिहार में उनके आने से कोरोना फैल जायेगा। केन्द्र सरकार ने कई आर्थिक कदम उठाए है जाहिर है सबको राहत पूरी तरह नहीं मिलेगी परन्तु सरकार के इरादे को भी पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ईएमआई की भरपाई में तीन महीने की छूट सम्भव है कि यह और आगे बढ़ेगा से लेकर रिटर्न दाखिल करने तक पर कई कदम पहले ही उठाये जा चुके हैं और अब एक मिनी बजट के माध्यम से सरकार दरियादिली दिखा रही है। किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग से लेकर रेहड़ी और पटरी वाले इनकी सौगात की जद्द में हैं मगर लाभ कितना होगा यह समय ही बतायेगा।

फिलहाल इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि मजदूर ने भी मोदी सरकार को 300 के पार ले जाने में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी ली है। वह केवल एक मतदाता नहीं है बल्कि देश के इज्जतदार नागरिक हैं। एक-एक मजदूर की समस्या देश की समस्या है। सरकार को इस पर अपनी आंखें पूरी तरह खोलनी चाहिए। हो सकता है कि इस कठिन दौर में सरकार के सारे इंतजाम कम पड़ रहे हों बावजूद इसके जिम्मेदारी तो उन्हीं की है। गौरतलब है कि आगामी दिनों में जब कल-कारखाने खुलेंगे, सड़कों पर वाहन दौड़ेगें, विमान भी हवा में उड़ान लेंगे तो इन्हीं कामगारों की कमी के चलते कठिनाईयां भी बादस्तूर दिखाई देंगी। गांव जाने वाले मजदूर शहर का अब रूख कब करेंगे कहना मुश्किल है। स्थिति यह भी बताती है कि सरकार पर उनका भरोसा भी कमजोर हुआ है जिसकी कीमत सरकारों को चुकानी पड़ेगी। फिलहाल कोरोना से निपटना प्राथमिकता है परन्तु देश के नागरिकों के साथ हो रहे हादसों पर भी लगाम और उनके घर पहुंचने का इंतजाम भी जरूरी है।

सुशील कुमार सिंह

 


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